Monday, September 29, 2025

एक निर्णनय —

मरे हुए पे कौन मरता है साहिब,
ज़ालिम को कौन याद करता है,
 साहिब।

मुबारक हो तुम्हें वो सब बुलंदियाँ,
मगर सफ़र अभी बहुत तय करना है, 
साहिब।

इस कश्ती के खेवट हो तुम ही जनाब,
हर तूफ़ां को भी तो पार करना है, 
साहिब।

थोड़ी चिन्गारी —अपनी हसरतों की चिताओं से उधार ले लो,
अब नया कोई अफ़साना भी तो शुरू करना है,
साहिब।
- 'मैं' द्वारा। 
ये देदो, वो देदो... 
यहां एक गुरू(अगर आपको हर शिक्षा के मन्दिरों में किसी औहदे पर बैठने वाला लगता है तो)... अपने विद्यार्थि उर्फ स्कॉलर से मांगता रहता है।
उसने विद्यार्थि को बदले में क्या दिया, आप आगे खुद ही निर्णनय लीजिएगा।

न समय की कीमत,
न समझ की परख,
न इंसान की पहचान l 
खुद को- गुरू कहने वाले ने सिर्फ छीना और कुचला अपनी महत्वकांक्षाओं को पुरा करने को ...
एक विद्यार्थि का - 
ज्ञान, सूकून, आत्मविश्वास, मनोबल, और 
...एक एक कर मांग बढ़ती गई...
मांग थी कुछ सौगातों की, उपहारों की ... और दक्षिणा ....
वही ...गुरू वाली... 
और फिर एक दिन... मांगा इस्तीफा... दूर जाता देख अपने नौकर ... माफ कीजिए गा... स्कॉलर को।
बस बहुत हुआ...हां बस और नहीं...थोड़ा और...नहीं!!... 
जब बर्दाश्त नहीं कर पाया वो स्कॉलर... 
इतनी बेचैनी..
नहीं ले पाया निर्णनय —दासिता स्वीकार करने के पक्ष में...
नहीं सांस ले पा रहा था वो... वह जहां था ...
वहां की वायू में —लोभ,वासना और छल-कपट का जहर घुल चुका था।
ये जहर के छीटे जो उसके पूज्य गुरू ने, न जाने कब उसके चरित्र पर डालने शुरू कर दिए थे ...
तो उस विद्यार्थि ने निर्णनय लिया... 
मुक्ती पाने का...
जो सर्वनाश से ही जन्म ले सकती थी।
एक नये व्यक्तित्व के निर्माण के लिए, 
अपने चरित्र की रक्षा के लिए, 
अपने अग्रजों की सिखाई नैतिकता की रक्षा के लिए...
ऐसे गुरू का त्याग —
या 
स्वयं का नाश
निर्णनय लेना आवश्यक हो गया था।

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